आदित्य हृदय स्तोत्र meaning in हिंदी और अनुवाद। यहाँ पढ़े
इस लेख में हमने पंक्तिबद्ध तरीके से आदित्य हृदय स्तोत्र के हिंदी भावार्थ ऐवम् अनुवाद का विवरण दीया गया है। ये उन साधको के लिए है जिनके लिए आदित्य हृदय स्तोत्र का मूल अर्थ जानना हो, किसी भी मंत्र को पढ़ने के लिए या जप करने से पहले उसका मतलब पता होना चाहिए। उसका मतलब पता होने पर मंत्र का लाभ अधिक होता है इसलिए आदित्य हृदय स्तोत्र का एक बार भावार्थ अवश्य पढ़ें।
हर जगह हम चाहते हैं कि हमें सफलता मिले और विजय की प्राप्ति हो। पराजय कौन चाहता है ? जब बात विजय की होती है जब बात सफ़लता की होती है तब ज्योतिष में सबसे ज्यादा अग्रगण्य होते हैं सूर्यदेव। और उनकी विधिवत उपासना की जाए तो काठिन से कठिन रास्ते क्यों ना हो बड़ी से बड़ी मुश्किल क्यों ना हो आपको विजय की प्राप्ति हो सकती है। इसी यश प्राप्ति का मार्ग शुरू होता है आदित्य हृदय स्तोत्र के पाठ के साथ।
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→ Aditya Hridaya Stotra Benefits / लाभ
Aditya Hridaya Stotra Meaning in Hindi
पूर्व पिठित
(श्लोक 1-2 )
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् । रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम् ॥1॥ दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् । उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो भगवांस्तदा ॥2॥
(श्लोक 1-2 भावार्थ)
उधर श्री रामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे । इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया । यह देख भगवान अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले ॥
(श्लोक 3)
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम् । येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥3॥
(श्लोक 3 भावार्थ)
सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो । वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे ॥
(श्लोक 4-5)
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् । जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥4॥ सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम् । चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम् ॥5॥
(श्लोक 4-5 भावार्थ)
इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है आदित्यहृदय । यह परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है । इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है । यह नित्य अक्ष्य और परम कल्याणमय स्तोत्र है । सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है । इससे सब पापों का नाश हो जाता है । यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है ॥
मूल -स्तोत्र
(श्लोक 6)
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥6॥
(श्लोक 6 भावार्थ)
भगवान सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित हैं । ये नित्य उदय होने वाले , देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले और संसार के स्वामी हैं । तुम इनकी पूजन करो ॥
(श्लोक 7)
सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः ।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ॥7॥
(श्लोक 7 भावार्थ)
सम्पूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं । ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं । ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं ॥
(श्लोक 8)
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥8॥
(श्लोक 8 भावार्थ)
ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण, पितर, वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं ॥
(श्लोक 9-10-11-12-13-14-15)
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः ।
वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥9॥
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान् ।
सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता दिवाकरः ॥10॥
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।
तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥11॥
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः ।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ॥12॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः ।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः ।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोदभवः ॥14॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः ।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥15॥
(श्लोक 9-10-11-12-13-14-15 भावार्थ)
इन्हीं के नाम अदितिपुत्र, जगत को उत्पन्न करने वाले, सर्वव्यापक, आकाश में विचरने वाले, पोषण करने वाले, प्रकाशमान, सुर्वणसदृश, प्रकाशक, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बीज,
रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले, दिशाओं में व्यापक अथवा हरे रंग के घोड़े वाले, हजारों किरणों से सुशोभित, अन्धकार का नाश करने वाले, कल्याण के उदगमस्थान,
त्भक्तों का दुःख दूर करने अथवा जगत का संहार करने वाले, किरण धारण करने वाले, ब्रह्मा, स्वभाव से ही सुख देने वाले, गर्मी पैदा करने वाले, दिनकर, सबकी स्तुति के पात्र, अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले,
अदितिपुत्र, आनन्दस्वरूप एवं व्यापक, शीत का नाश करने वाले, आकाश के स्वामी, अन्धकार को नष्ट करने वाले, ऋग, यजुः और सामवेद के पारगामी, घनी वृष्टि के कारण, जल को उत्पन्न करने वाले,
आकाश में तीव्रवेग से चलने वाले, घाम उत्पन्न करने वाले, किरणसमूह को धारण करने वाले,मौत के कारण, भूरे रंग वाले, सबको ताप देने वाले, त्रिकालदर्शी, सर्वस्वरूप, महातेजस्वी, लाल रंगवाले,
सबकी उत्पत्ति के कारण, नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, जगत की रक्षा करने वाले, तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी तथा बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त हैं । इन सभी नामों से प्रसिद्ध सूर्यदेव ! आपको नमस्कार है ॥
(श्लोक 16)
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः ।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥16॥
(श्लोक 16 भावार्थ)
पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है । ग्रहों और तारों के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है ॥
(श्लोक 17)
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥17॥
(श्लोक 17 भावार्थ)
आप जय स्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता है । आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं । आपको बारंबार नमस्कार है । सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य ! आपको बारंबार प्रणाम है । आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध है, आपको नमस्कार है ॥
(श्लोक 18)
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः ।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥
(श्लोक 18 भावार्थ)
उग्र, वीर एवं सारंग (शीघ्रगामी) सूर्यदेव को मेरा नमस्कार है।
कमलों को विकसित करनेवाले प्रचंड तेजधारी प्रचण्ड को भी मेरा प्रणाम है ॥
(श्लोक 19)
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायदित्यवर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥19॥
(श्लोक 19 भावार्थ)
(परात्पर-रूप में) आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं । सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है ॥
(श्लोक 20)
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥20॥
(श्लोक 20 भावार्थ)
आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय है । आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है ॥
(श्लोक 21)
तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे ।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥
(श्लोक 21 भावार्थ)
आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप अज्ञान का हरण करने वाले और संसार की सृष्टि करने वाले हैं, तम के नाशक, प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है ॥
(श्लोक 22)
नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः ।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥22॥
(श्लोक 22 भावार्थ)
रघुनन्दन ! ये भगवान सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं । ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुँचाते और वर्षा करते हैं ॥
(श्लोक 23)
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः ।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥23 ॥
(श्लोक 23 भावार्थ)
ये सब भूतों में अन्तर्यामीरूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं । ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं ॥
(श्लोक 24)
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ॥24॥
(श्लोक 24 भावार्थ)
यज्ञ में भाग ग्रहण करने वाले, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं । सम्पूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं ॥
(श्लोक 25)
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ॥25॥
(श्लोक 25 भावार्थ)
राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता ॥
(श्लोक 26)
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् ।
एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु विजयिष्ति ॥26॥
(श्लोक 26 भावार्थ)
इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो । इस आदित्य हृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे ॥
(श्लोक 27)
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि ।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥27॥
(श्लोक 27 भावार्थ)
महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे । यह कहकर अगस्त्य जी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये ॥
(श्लोक 28-29-30)
एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा ।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ॥28॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥29॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत् ।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥30॥
(श्लोक 28-29-30 भावार्थ)
उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया । उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जप किया । इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ । फिर परम पराक्रमी रघुनाथजी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े । उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया ॥
(श्लोक 31)
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः ।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥31 ॥
(श्लोक 31भावार्थ)
उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा रघुनन्दन ! अब जल्दी करो ॥
Read Here! Aditya Hridayam Stotram in one page properly.
Aditya Hridaya Stotra Paath